23 साल पुरानी राजनीतिक दुश्मनी भुला मिले पवैया से सिंधिया


ग्वालियर

एक समय था, जब हिंदूवादी छवि के भाजपा नेता व पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया और ज्योतिरादित्य सिंधिया एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते थे। सिंधिया परिवार को महलों में रहने वाला कहकर चांदी की चम्मच से खाने वाला बताकर पवैया चुनाव मैदान में उतरे थे। काफी हद तक सिंधिया को हार के करीब भी ले आए थे, पर 23 साल की दुश्मनी के बाद अब दोस्ती की नई शुरुआत होती दिख रही है।

राजनीति क्या न करवा दें, न कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया ने और न कभी जयभान सिह पवैया ने यह सोचा होगा कि वे एक दूसरे के साथ एक, दो, तीन या चार नहीं बल्कि पूरे 25 मिनट बिताएंगे। दरअसल ग्वालियर के दो दिन के दौरे पर आए राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया कभी राजनीति में अपने स्वर्गीय पिता और अब खुद के धुर विरोधी रहे जय भान सिंह पवैया के घर पहुंचे। पिछले दिनों पवैया के पिता का निधन हो गया था और सिंधिया पवैया के घर शोक संवेदना व्यक्त करने पहुंचे थे। लेकिन इस मुलाकात के बहुत बड़े सियासी मायने हैं। दरअसल बजरंग दल के सहारे अपनी छवि को राष्ट्रीय स्तर का बनाने वाले जयभान सिंह पवैया उस समय सुर्खियों में आए जब 1998 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी माधवराव सिंधिया के खिलाफ चुनाव मैदान में उतारा। यह वह समय था जब ग्वालियर-चंबल अंचल में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के बारे में कहा जाता था ‘एक महल की दो दुकान, कांग्रेस बीजेपी एक समान’ यानी बीजेपी में स्व. विजया राजे सिंधिया और कांग्रेस में स्व. माधवराव सिंधिया, दोनों ही कांग्रेस बीजेपी की राजनीति के खेवनहार थे। उस समय जब पवैया को ग्वालियर सीट से भाजपा से लोकसभा टिकट मिला तब किसी ने सोचा भी न था कि आगे क्या होने वाला है। लेकिन अपनी गजब की भाषण शैली से पवैया ने जब प्रचार चालू किया तो कांग्रेसियों की हवाइयां उड़ने लगी।

पवैया वो पहले शख्स थे जिन्होंने सीधे सिंधिया परिवार को ही चुनौती दे डाली और अपने भाषणों में सामंत शाही और राजशाही का खुलकर विरोध किया। नतीजा आया तो स्वर्गीय माधवराव सिंधिया जैसे कद्दावर नेता बमुश्किल 28000 वोटों से अपनी लोकसभा सीट बचा पाये। सिंधिया के लिए ग्वालियर का यह अंतिम लोकसभा चुनाव था। उसके बाद उन्होंने गुना को अपनी संसदीय सीट बना लिया और उनके असामयिक निधन के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी वहीं से सांसद बनते रहे। 2004 में पवैया को टिकट मिला और वे सांसद भी बन गए। महल के साथ उनका विरोध जारी रहा और उन्होंने ग्वालियर में झांसी रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस मनाना शुरू कर दिया। सीधे तौर पर सिंधिया परिवार के लिए चुनौती थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी कांग्रेस में रहते जितना विरोध जयभान सिंह पवैया ने किया, उतना बीजेपी का कोई नेता नहीं कर पाया। शुक्रवार को जब सिंधिया और पवैया मिले और न केवल मिले बल्कि 25 मिनट तक आपस में गुफ्तगू की तो सबके कान खड़े होना स्वाभाविक था। हालांकि पवैया ने कहा कि भारतीय परंपरा के अनुसार हम एक दूसरे के घर सुख दुख बांटने जाते हैं और क्योंकि मेरे पिता का निधन हुआ है इसीलिए सिंधिया का मेरे यहां आना एक कार्यकर्ता का दूसरे कार्यकर्ता के साथ दुख बांटने से ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन सिंधिया जरूर बोले कि ‘अतीत अतीत होता है। नया समय, नए संबंध और नया रिश्ता कायम करने के लिए होता है। हम दोनों साथ मिलकर काम करेंगे, मैं ऐसी आशा करता हूं।’

दरअसल सिंधिया और पवैया, दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। जहां जय भान सिंह पवैया पिछली सरकार में मंत्री रहने के बावजूद 2018 का विधानसभा चुनाव हार गए थे और उनकी परंपरागत सीट पर अब कांग्रेस से बीजेपी में आए प्रद्युम्न सिंह तोमर का कब्जा है तो वही सिंधिया को अब अपनी बीजेपी में शुरू हुई पारी को मजबूत करने के लिए अंचल में ऐसे नेताओं की सख्त जरूरत है जो वर्तमान में स्थापित नेताओं के विरोधी भी हो और अच्छा खासा वजन भी रखते हो। पवैया की छवि कट्टर हिंदू नेता की मानी जाती है और हिंदू धर्म व संघ दोनों में उनका अच्छा खासा प्रभाव है। अब सिंधिया और पवैया की यह मुलाकात आने वाले समय में क्या गुल खिलाएगी, इसका ग्वालियर को इंतजार रहेगा।

The Naradmuni Desk

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